” वक्त और लोगों ने कभी समझा ही नहीं अब लिख लिख के ही खुद को समझ रहे हैं”इनका नाम अभिषेक मिश्रा हैं। ये मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। ये कहते हैं, लेखन इनका पेशा नहीं है, लॉकडाउन में ख़ाली बैठने के कारण इन्होंने कुछ लिखा और ये धन्यवाद देते हैं उन लोगों को जिन्होंने उसे पढ़ा और इन्हें उत्साहित किया लिखने को और इन्हें लिखना अच्छा लगने लगा जब अच्छे जवाब मिलने लगे तो इन्हें लगा सच में ये बहुत अच्छा माध्यम है ख़ुद की भावनाएँ दिखाने का और ख़ुद से बातें करने का।
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कितने चेहरे हैं, कितने नकाबपोश
कितने चेहरे हैं,
कितने नकाबपोश,
कुछ बोल रहे हैं,
कुछ हैं अभी खामोश,
है किसके पीछे क्या
कोई नहीं जानता,
जानता भी है
तो भी नहीं मानता,
आज वो है तेरा खास
अपने लिए,
करता वो है ये
सबके लिए,
समझ तू अब
भूल गया वो पल,
जब तेरे साथ हुआ था छल,
साथ था वो हर पल,
उस पल भी वो था खल,
नकाब ओढ़े वफाई का
अंदर से तो था मल,
सब कुछ तो सही था,
पर वो और कहीं था,
तुम्हें भी तो लगा था
एक पल,
कहीं वो तो नहीं है
उस दल,
विश्वास की झिल्ली आँखों पे चढ़ाकर
मान लिया उसे फिर अपना कल,
क्या हुआ…
झेल ही रहे हो….
कितने चेहरे हैं
कितने नकाबपोश,
एक खामोश चेहरा
आया था कभी सामने,
उदासी में सदा
हमेशा हाथ थामने,
मुसीबत में सदा खड़ा,
रास्ता दिखा नहीं बढ़ा,
रास्ते में साथ रहकर
तेरे लिए सबसे लड़ा,
कितने चेहरे हैं
कितने नकाबपोश,
कुछ पाने को बनते हैं तेरे,
विश्वास पाने को लगा लेते हैं चेहरे,
ये चेहरे देख तुमपे लग जाते हैं पहरे,
फ़िर कोई कितना भी चिल्ला चिल्ला कर बताये असलियत तुम हो जाते हो बहरे,
पा लिया उसने
जो पाना था
चिल्लाओ…
अब चिल्लाओ….
दिखाया था जब चेहरा,
तब भी नहीं हुई थी देरा,
अरे वो दिल पे दे रहा था पहरा,
तुम्हें क्या लगा
लेगा वो फेरा,
कितने चेहरे हैं
कितने नकाबपोश |
